भीड़ तन्हाइयों का मेला है
आदमी आदमी अकेला है
Parveen Shakir
Rahat Indori
Habib Jalib
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Jaun Eliya
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
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तुम ने रस्म-ए-जफ़ा उठा दी है
हुजूम-ए-ग़म है क़ल्ब ग़म-ज़दा है
कौन उठाए इश्क़ के अंजाम की जानिब नज़र
जवानी ज़िंदगानी है न तुम समझे न हम समझे
उजाला कर के ज़ुल्मत में घिरा हूँ
ये हमीं हैं कि तिरा दर्द छुपा कर दिल में
पूछें तिरे ज़ुल्म का सबब हम
चला-चल मोहलत-ए-आराम क्या है
इस शान का आशुफ़्ता-ओ-हैराँ न मिलेगा
अश्क-बारी नहीं फ़ुर्क़त में शरर-बारी है
यगाना बन के हो जाए वो बेगाना तो क्या होगा
तुझ से दामन-कशाँ नहीं हूँ मैं