दिसंबर Poetry

पिछले बरस तुम साथ थे मेरे और दिसम्बर था

फ़रह शाहिद

आख़िरी आदमी

फ़ख़्र-ए-आलम नोमानी

इसे कहना

अर्श सिद्दीक़ी

कोई चेहरा न सदा कोई न पैकर होगा

ज़ुबैर रिज़वी

अजीब ख़्वाब था उस के बदन में काई थी

तहज़ीब हाफ़ी

सामने आँखों के फिर यख़-बस्ता मंज़र आएगा

सुल्तान अख़्तर

दर-ब-दर की ख़ाक पेशानी पे मल कर आएगा

सुल्तान अख़्तर

कोई महबूब सितमगर भी तो हो सकता है

सिरज़ अालम ज़ख़मी

वो सर्द धूप रेत समुंदर कहाँ गया

सिदरा सहर इमरान

हर दिसम्बर इसी वहशत में गुज़ारा कि कहीं

रेहाना रूही

दिल को रह रह के ये अंदेशे डराने लग जाएँ

रेहाना रूही

रोते हैं जब भी हम दिसम्बर में

इंद्र सराज़ी

रेफ़्रेनडम

हबीब जालिब

इरादा था जी लूँगा तुझ से बिछड़ कर

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

कहीं लोग तन्हा कहीं घर अकेले

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

इक सर्द-जंग का है असर मेरे ख़ून में

ग़ौसिया ख़ान सबीन

एक सौ बीस दिन

फरीहा नक़वी

धुँद

बिलाल अहमद

बे-ख़ुदा होने के डर में बे-सबब रोता रहा

अज़रा परवीन

मैं एक बोरी में लाया हूँ भर के मूँग-फली

अज़ीज़ फ़ैसल

रघुपति राघव राजा राम

अशोक लाल

मैं तुम्हारा हूँ

अलमास शबी

जहाँ में हाल मिरा इस क़दर ज़बून हुआ

अकबर इलाहाबादी

वही आँगन वही खिड़की वही दर याद आता है

आलोक श्रीवास्तव

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