सामने आँखों के फिर यख़-बस्ता मंज़र आएगा
धूप जम जाएगी आँगन में दिसम्बर आएगा
Habib Jalib
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हर इक लम्हा हमें हम से जुदा करती हुई सी
जा चुका तूफ़ान लेकिन कपकपी है
हरीफ़-ए-वक़्त हूँ सब से जुदा है राह मिरी
किसी के वास्ते जीता है अब न मरता है
कोई भी शहर में खुल कर न बग़ल-गीर हुआ
तन्हाइयों की बर्फ़ थी बिस्तर पे जा-ब-जा
सफ़र सफ़र मिरे क़दमों से जगमगाया हुआ
बराए नाम सही दिन के हाथ पीले हैं
साअत-ए-मर्ग-ए-मुसलसल हर नफ़स भारी हुई
ख़ाना-बर्बाद हुए बे-दर-ओ-दीवार रहे
ख़ाक उड़ती है ख़रीदार कहाँ खो गए हैं