सफ़र सफ़र मिरे क़दमों से जगमगाया हुआ
तरफ़ तरफ़ है मिरी ख़ाक-ए-जुस्तुजू रौशन
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जा चुका तूफ़ान लेकिन कपकपी है
पस-ए-ग़ुबार-ए-तलब ख़ौफ़-ए-जुस्तुजू है बहुत
हर इक लम्हा हमें हम से जुदा करती हुई सी
कुछ डूबता उभरता सा रहता है सामने
झूट रौशन है कि सच्चाई नहीं जानते हैं
फ़ुर्सत में रहा करते हैं फ़ुर्सत से ज़्यादा
वही बे-सबब से निशाँ हर तरफ़
ज़ंग-आलूद ज़बाँ तक पहूँची होंटों की मिक़राज़
कोई भी शहर में खुल कर न बग़ल-गीर हुआ
तुझ को पाने के लिए ख़ाक-ए-तमन्ना हो जाऊँ
सिलसिला मेरे सफ़र का कभी टूटा ही नहीं
नफ़स नफ़स इज़्तिराब में था