फ़ुर्सत में रहा करते हैं फ़ुर्सत से ज़्यादा
मसरूफ़ हैं हम लोग ज़रूरत से ज़्यादा
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सब का चेहरा पस-ए-दीवार-ए-अना रहता है
किसी के वास्ते जीता है अब न मरता है
पस-ए-ग़ुबार-ए-तलब ख़ौफ़-ए-जुस्तुजू है बहुत
तुझ को पाने के लिए ख़ाक-ए-तमन्ना हो जाऊँ
हर एक दास्ताँ तुझ से शुरूअ होती है
काम आती नहीं अब कोई तदबीर हमारी
ख़ाना-बर्बाद हुए बे-दर-ओ-दीवार रहे
तिलिस्म-ए-कार-ए-जहाँ का असर तमाम हुआ
झूट रौशन है कि सच्चाई नहीं जानते हैं
बराए नाम सही दिन के हाथ पीले हैं
ये और बात कि 'अख़्तर' हवेलियाँ न रहीं
मिरी क़दीम रिवायत को आज़माने लगे