हमारी सादा-मिज़ाजी पे रश्क करते हैं
वो सादा-पोश जो बे-इंतिहा रंगीले हैं
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जिस को क़रीब पाया उसी से लिपट गए
ये जो हम अतलस ओ किम-ख़्वाब लिए फिरते हैं
रक़्स-ए-ताऊस-ए-तमन्ना नहीं होने वाला
सरसब्ज़ मौसमों का असर ले गया कोई
जा चुका तूफ़ान लेकिन कपकपी है
साअत-ए-मर्ग-ए-मुसलसल हर नफ़स भारी हुई
मैं वो सहरा जिसे पानी की हवस ले डूबी
ये और बात कि 'अख़्तर' हवेलियाँ न रहीं
फिर भी हम लोग वहाँ जीते हैं जीने की तरह
फ़ुर्सत में रहा करते हैं फ़ुर्सत से ज़्यादा
ख़्वाब आँखों से चुने नींद को वीरान किया
हर इक लम्हा हमें हम से जुदा करती हुई सी