मैं वो सहरा जिसे पानी की हवस ले डूबी
तू वो बादल जो कभी टूट के बरसा ही नहीं
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कुछ डूबता उभरता सा रहता है सामने
किसी के वास्ते जीता है अब न मरता है
ख़ाक उड़ती है ख़रीदार कहाँ खो गए हैं
ख़्वाबों की लज़्ज़तों पे थकन का ग़िलाफ़ था
फ़ुर्सत में रहा करते हैं फ़ुर्सत से ज़्यादा
सब का चेहरा पस-ए-दीवार-ए-अना रहता है
सफ़र सफ़र मिरे क़दमों से जगमगाया हुआ
तन्हाई की ख़लीज है यूँ दरमियान में
ज़ंग-आलूद ज़बाँ तक पहूँची होंटों की मिक़राज़
काम आती नहीं अब कोई तदबीर हमारी
मैं लड़खड़ाया तो मुझ को गले लगाने लगे
सिलसिला मेरे सफ़र का कभी टूटा ही नहीं