ये और बात कि 'अख़्तर' हवेलियाँ न रहीं
खंडर में कम तो नहीं अपनी आबरू रौशन
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छीन ले क़ुव्वत बीनाई ख़ुदाया मुझ से
अपनी तहज़ीब की दीवार सँभाले हुए हैं
पस-ए-ग़ुबार-ए-तलब ख़ौफ़-ए-जुस्तुजू है बहुत
हमारी सादा-मिज़ाजी पे रश्क करते हैं
ख़ाना-बर्बाद हुए बे-दर-ओ-दीवार रहे
रक़्स-ए-ताऊस-ए-तमन्ना नहीं होने वाला
अब तक लहू का ज़ाइक़ा ख़ंजर पे नक़्श है
तन्हाई की ख़लीज है यूँ दरमियान में
फ़ुर्सत में रहा करते हैं फ़ुर्सत से ज़्यादा
ज़ंग-आलूद ज़बाँ तक पहूँची होंटों की मिक़राज़
काम आती नहीं अब कोई तदबीर हमारी
सब का चेहरा पस-ए-दीवार-ए-अना रहता है