इरादा था जी लूँगा तुझ से बिछड़ कर
गुज़रता नहीं इक दिसम्बर अकेले
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ज़िंदगी
ज़मानों को उड़ानें बर्क़ को रफ़्तार देता था
तुम यूँ ही नाराज़ हुए हो वर्ना मय-ख़ाने का पता
करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
ज़ेहन में दाएरे से बनाता रहा दूर ही दूर से मुस्कुराता रहा
वो लोग मुतमइन हैं कि पत्थर हैं उन के पास
यूँ तो सदा-ए-ज़ख़्म बड़ी दूर तक गई
याद अश्कों में बहा दी हम ने
तिरी आवाज़ को इस शहर की लहरें तरसती हैं
जिस को इस फ़स्ल में होना है बराबर का शरीक
सोचा है तुम्हारी आँखों से अब मैं उन को मिलवा ही दूँ
कुछ बे-तरतीब सितारों को पलकों ने किया तस्ख़ीर तो क्या