इस तरह क़हत-ए-हवा की ज़द में है मेरा वजूद
आँधियाँ पहचान लेती हैं ब-आसानी मुझे
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सीना मदफ़न बन जाता है जीते जागते राज़ों का
इरादा था जी लूँगा तुझ से बिछड़ कर
पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना
बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है
करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
ऊँचे दर्जे का सैलाब
ये भी इक रंग है शायद मिरी महरूमी का
मोहब्बत की गवाही अपने होने की ख़बर ले जा
सोचा है तुम्हारी आँखों से अब मैं उन को मिलवा ही दूँ
जिस को इस फ़स्ल में होना है बराबर का शरीक
सोए हुए जज़्बों को जगाना ही नहीं था
कोई मुँह फेर लेता है तो 'क़ासिर' अब शिकायत क्या