करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता
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इस तरह क़हत-ए-हवा की ज़द में है मेरा वजूद
हम ने तुम्हारे ग़म को हक़ीक़त बना दिया
मोहब्बत की गवाही अपने होने की ख़बर ले जा
ज़मानों को उड़ानें बर्क़ को रफ़्तार देता था
ख़ुशबू गिरफ़्त-ए-अक्स में लाया और उस के बाद
यूँ तो सदा-ए-ज़ख़्म बड़ी दूर तक गई
हिज्र के तपते मौसम में भी दिल उन से वाबस्ता है
ये भी इक रंग है शायद मिरी महरूमी का
गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
कहीं लोग तन्हा कहीं घर अकेले