कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
और डूबने वालों का जज़्बा भी नहीं बदला
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हर एक पल की उदासी को जानता है तो आ
सब रंग ना-तमाम हों हल्का लिबास हो
बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
हिज्र के तपते मौसम में भी दिल उन से वाबस्ता है
हर साल की आख़िरी शामों में दो चार वरक़ उड़ जाते हैं
जिस को इस फ़स्ल में होना है बराबर का शरीक
फिर वही कहने लगे तू मिरे घर आया था
गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
वो बे-दिली में कभी हाथ छोड़ देते हैं
बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है
पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना