हर साल की आख़िरी शामों में दो चार वरक़ उड़ जाते हैं
अब और न बिखरे रिश्तों की बोसीदा किताब तो अच्छा हो
Parveen Shakir
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Gulzar
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सोए हुए जज़्बों को जगाना ही नहीं था
तुम यूँ ही नाराज़ हुए हो वर्ना मय-ख़ाने का पता
बयाबाँ दूर तक मैं ने सजाया था
उम्मीद की सूखती शाख़ों से सारे पत्ते झड़ जाएँगे
पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना
बन से फ़सील-ए-शहर तक कोई सवार भी नहीं
ज़िंदगी
हज़ारों इस में रहने के लिए आए
फिर वो दरिया है किनारों से छलकने वाला
सोचा है तुम्हारी आँखों से अब मैं उन को मिलवा ही दूँ
ज़ेहन में दाएरे से बनाता रहा दूर ही दूर से मुस्कुराता रहा
किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं