हम ने तुम्हारे ग़म को हक़ीक़त बना दिया
तुम ने हमारे ग़म के फ़साने बनाए हैं
Habib Jalib
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गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
प्यार गया तो कैसे मिलते रंग से रंग और ख़्वाब से ख़्वाब
कहीं लोग तन्हा कहीं घर अकेले
बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
जिन की दर्द-भरी बातों से एक ज़माना राम हुआ
दिन अंधेरों की तलब में गुज़रा
मिलने की हर आस के पीछे अन-देखी मजबूरी थी
हज़ारों इस में रहने के लिए आए
आफ़ाक़ में फैले हुए मंज़र से निकल कर
कोई मुँह फेर लेता है तो 'क़ासिर' अब शिकायत क्या
सोए हुए जज़्बों को जगाना ही नहीं था
बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है