बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
वो शख़्स जिस का मुझे नाम भी नहीं आता
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बयाबाँ दूर तक मैं ने सजाया था
ख़्वाब कहाँ से टूटा है ताबीर से पूछते हैं
कोई मुँह फेर लेता है तो 'क़ासिर' अब शिकायत क्या
आफ़ाक़ में फैले हुए मंज़र से निकल कर
नाम लिख लिख के तिरा फूल बनाने वाला
सोते हैं वो आईना ले कर ख़्वाबों में बाल बनाते हैं
ज़ेहन में दाएरे से बनाता रहा दूर ही दूर से मुस्कुराता रहा
ख़ामोश थे तुम और बोलता था बस एक सितारा आँखों में
किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं
सायों की ज़द में आ गईं सारी ग़ुलाम-गर्दिशें
उम्मीद की सूखती शाख़ों से सारे पत्ते झड़ जाएँगे
बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो