सायों की ज़द में आ गईं सारी ग़ुलाम-गर्दिशें
अब तो कनीज़ के लिए राह-ए-फ़रार भी नहीं
Gulzar
Allama Iqbal
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Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Habib Jalib
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रात उस के सामने मेरे सिवा भी मैं ही था
कुछ बे-तरतीब सितारों को पलकों ने किया तस्ख़ीर तो क्या
अब उसी आग में जलते हैं जिसे
मोहब्बत की गवाही अपने होने की ख़बर ले जा
हम ने तुम्हारे ग़म को हक़ीक़त बना दिया
वो बे-दिली में कभी हाथ छोड़ देते हैं
तज़ाद
एक ज़ाती नज़्म
सोए हुए जज़्बों को जगाना ही नहीं था
फिर वो दरिया है किनारों से छलकने वाला
हिज्र के तपते मौसम में भी दिल उन से वाबस्ता है
बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो