वो लोग मुतमइन हैं कि पत्थर हैं उन के पास
हम ख़ुश कि हम ने आईना-ख़ाने बनाए हैं
Ahmad Faraz
Habib Jalib
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Anwar Masood
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हर साल की आख़िरी शामों में दो चार वरक़ उड़ जाते हैं
आँख से बिछड़े काजल को तहरीर बनाने वाले
गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना
वफ़ा के शहर में अब लोग झूट बोलते हैं
कोई मुँह फेर लेता है तो 'क़ासिर' अब शिकायत क्या
वो बे-दिली में कभी हाथ छोड़ देते हैं
उम्मीद की सूखती शाख़ों से सारे पत्ते झड़ जाएँगे
याद अश्कों में बहा दी हम ने
दुआ और बद-दुआ के दरमियाँ
दिन अंधेरों की तलब में गुज़रा
हिज्र के तपते मौसम में भी दिल उन से वाबस्ता है