याद अश्कों में बहा दी हम ने
आ कि हर बात भुला दी हम ने
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हम ने तो बे-शुमार बहाने बनाए हैं
ज़ेहन में दाएरे से बनाता रहा दूर ही दूर से मुस्कुराता रहा
अकेला दिन है कोई और न तन्हा रात होती है
बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
आफ़ाक़ में फैले हुए मंज़र से निकल कर
हिज्र के तपते मौसम में भी दिल उन से वाबस्ता है
तुम यूँ ही नाराज़ हुए हो वर्ना मय-ख़ाने का पता
सब रंग ना-तमाम हों हल्का लिबास हो
फिर तो इस बे-नाम सफ़र में कुछ भी न अपने पास रहा
जिस को इस फ़स्ल में होना है बराबर का शरीक