हर दिसम्बर इसी वहशत में गुज़ारा कि कहीं
फिर से आँखों में तिरे ख़्वाब न आने लग जाएँ
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वो मुंतज़िर हैं हमारे तो हम किसी के हैं
जुनून-ए-इश्क़ में सद-चाक होना पड़ता है
जो सहीफ़ों में लिखी है वो क़यामत हो जाए
कोई जादू न फ़साना न फ़ुसूँ है यूँ है
जो भीक माँगते हुए बच्चे के पास था
किसी की चश्म-ए-गुरेज़ाँ में जल बुझे हम लोग
शब-ओ-रोज़ रक़्स-ए-विसाल था सो नहीं रहा
ये सोच कर न फिर कभी तुझ को पुकारा दोस्त
नज़्ज़ारा-ए-जमाल ने सोने नहीं दिया
कौन कहाँ तक जा सकता है
नींद आँखों में मुसलसल नहीं होने देता