ऐसा भी कोई ग़म है जो तुम से नहीं पाया
ऐसा भी कोई दर्द है जो दिल में नहीं है
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टुकड़े हुए थे दामन-ए-हस्ती के जिस क़दर
उस का वादा ता-क़यामत कम से कम
पूछें तिरे ज़ुल्म का सबब हम
आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
ख़्वाहिशों ने दिल को तस्वीर-ए-तमन्ना कर दिया
जो देखिए तो करम इश्क़ पर ज़रा भी नहीं
हुस्न जो रंग ख़िज़ाँ में है वो पहचान गया
तुम ने रस्म-ए-जफ़ा उठा दी है
अपने जलने में किसी को नहीं करते हैं शरीक
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
पूरी मिरे जुनूँ की ज़रूरत न कर सके
अभी तो एक वतन छोड़ कर ही निकले हैं