अभी तो एक वतन छोड़ कर ही निकले हैं
हनूज़ देखनी बाक़ी हैं हिजरतें क्या क्या
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उलझनों में कैसे इत्मीनान-ए-दिल पैदा करें
काम आएगी मिज़ाज-ए-इश्क़ की आशुफ़्तगी
आईना बन जाइए जल्वा-असर हो जाइए
उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
आईना कैसा था वो शाम-ए-शकेबाई का
आप आए हैं सो अब घर में उजाला है बहुत
अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
सोना था जितना अहद-ए-जवानी में सो लिए
रौशनी ख़ुद भी चराग़ों से अलग रहती है
उस का वादा ता-क़यामत कम से कम
कमाल-ए-ज़ब्त में यूँ अश्क-ए-मुज़्तर टूट कर निकला
जवानी ज़िंदगानी है न तुम समझे न हम समझे