अच्छा हुआ कि सब दर-ओ-दीवार गिर पड़े
अब रौशनी तो है मिरे घर में हवा तो है
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मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-शौक़ सुस्त-गाम हो क्यूँ
अज़ल से आज तक सज्दे किए और ये नहीं सोचा
इस रंग में अपने दिल-ए-नादाँ से गिला है
अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
तुझ से दामन-कशाँ नहीं हूँ मैं
कब तक नजात पाएँगे वहम ओ यक़ीं से हम
समझेगा आदमी को वहाँ कौन आदमी
रौशनी ख़ुद भी चराग़ों से अलग रहती है
आप के लब पे और वफ़ा की क़सम
हवस-परस्त अदीबों पे हद लगे कोई
कब तक यक़ीन इश्क़ हमें ख़ुद न आएगा
है जो दरवेश वो सुल्ताँ है ये मा'लूम हुआ