कब तक यक़ीन इश्क़ हमें ख़ुद न आएगा
कब तक मकाँ का हाल कहेंगे मकीं से हम
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टुकड़े हुए थे दामन-ए-हस्ती के जिस क़दर
कसरत-ए-जल्वा को आईना-ए-वहदत समझो
जुनूँ में गुम हुए होश्यार हो कर
सौ बार जिस को देख के हैरान हो चुके
यगाना बन के हो जाए वो बेगाना तो क्या होगा
बाल-ओ-पर की जुम्बिशों को काम में लाते रहो
अजल होती रहेगी इश्क़ कर के मुल्तवी कब तक
क्या मआल-ए-दहर है मेरी मोहब्बत का मआल
अश्क-बारी नहीं फ़ुर्क़त में शरर-बारी है
ख़्वाहिशों ने दिल को तस्वीर-ए-तमन्ना कर दिया
जवानी ज़िंदगानी है न तुम समझे न हम समझे
हुजूम-ए-ग़म है क़ल्ब ग़म-ज़दा है