फिर नई हिजरत कोई दरपेश है
ख़्वाब में घर देखना अच्छा नहीं
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हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना
जानिब-ए-दर देखना अच्छा नहीं
तुम अपने अक्स में क्या देखते हो
दुनिया ने जब डराया तो डरने में लग गया
चमका जो चाँद रात का चेहरा निखर गया
इक सैल-ए-बे-पनाह की सूरत रवाँ है वक़्त
हम क्या कहें कि आबला-पाई से क्या मिला
यक़ीं का दाएरा देखा है किस ने
अश्क ढलते नहीं देखे जाते
मैं तेरी ही आवाज़ हूँ और गूँज रहा हूँ
जब थी मंज़िल नज़र में तो रस्ता था एक
याद यूँ होश गँवा बैठी है