मंज़रों के भी परे हैं मंज़र
आँख जो हो तो नज़र जाए जी
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जब थी मंज़िल नज़र में तो रस्ता था एक
ज़मीं को और ऊँचा मत उठाओ
फूल के लायक़ फ़ज़ा रखनी ही थी
शाइरी पेट की ख़ातिर 'जावेद'
दुनिया ने जब डराया तो डरने में लग गया
इस ही बुनियाद पर क्यूँ न मिल जाएँ हम
जो गुज़रता है गुज़र जाए जी
तुम अपने अक्स में क्या देखते हो
आप के जाते ही हम को लग गई आवारगी
जानिब-ए-दर देखना अच्छा नहीं
हर इक रस्ते पे चल कर सोचते हैं
चाँदनी रात में हर दर्द सँवर जाता है