कभी सोचा है मिट्टी के अलावा
हमें कहते हैं ये दीवार-ओ-दर क्या
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रूह को क़ालिब के अंदर जानना मुश्किल हुआ
लगे है आसमाँ जैसा नहीं है
चाँदनी रात में हर दर्द सँवर जाता है
चमका जो चाँद रात का चेहरा निखर गया
तुम अपने अक्स में क्या देखते हो
सजाते हो बदन बेकार 'जावेद'
हर इक रस्ते पे चल कर सोचते हैं
चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया
जो गुज़रता है गुज़र जाए जी
आप के जाते ही हम को लग गई आवारगी
समुंदर पार आ बैठे मगर क्या