तुम तो ऐ ख़ुशबू हवाओ उस से मिल कर आ गईं
एक हम थे ज़ख़्म-ए-तन्हाई हरा करते रहे
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अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ
हसीन ख़्वाब न दे अब यक़ीन-ए-सादा दे
चमक दे चाँद को ठंडक हवा को दिल को उमंग
अपने वजूद से परे अब
क़दम क़दम पे नया इम्तिहाँ है मेरे लिए
इतना यक़ीन रख कि गुमाँ बाक़ी रहे
इक मुसलसल जंग थी ख़ुद से कि हम ज़िंदा हैं आज
सुलग रहा है कोई शख़्स क्यूँ अबस मुझ में
मैं तुझ को जागती आँखों से छू सकूँ न कभी
वो निशाना भी ख़ता जाता तो बेहतर होता
ख़ुश-शनासी का सिला कर्ब का सहरा हूँ मैं
बड़ा मुख़्लिस हूँ पाबंद-ए-वफ़ा हूँ