वो क़यामत थी कि रेज़ा रेज़ा हो के उड़ गया
ऐ ज़मीं वर्ना कभी इक आसमाँ मेरा भी था
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चमक दे चाँद को ठंडक हवा को दिल को उमंग
अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ
इक मुसलसल जंग थी ख़ुद से कि हम ज़िंदा हैं आज
अना रही न मिरी मुतलक़-उल-इनानी की
क़दम क़दम पे नया इम्तिहाँ है मेरे लिए
अपने होने का इक इक पल तजरबा करते रहे
ख़ुश-शनासी का सिला कर्ब का सहरा हूँ मैं
वो शख़्स क्या है मिरे वास्ते सुनाएँ उसे
मैं तुझ को जागती आँखों से छू सकूँ न कभी
वादा-ए-वस्ल है लज़्ज़त-ए-इंतिज़ार उठा
सुलग रहा है कोई शख़्स क्यूँ अबस मुझ में