परिंदा जानिब-ए-दाना हमेशा उड़ के आता है
परिंदे की तरफ़ उड़ कर कभी दाना नहीं आता
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ग़म है वहीं प ग़म का सहारा गुज़र गया
रख़्त-ए-सफ़र यूँही तो न बेकार ले चलो
बिछड़ के तुझ से न देखा गया किसी का मिलाप
बिकता तो नहीं हूँ न मिरे दाम बहुत हैं
किसी झूटी वफ़ा से दिल को बहलाना नहीं आता
ग़म के हर इक रंग से मुझ को शनासा कर गया
मैं गुफ़्तुगू हूँ कि तहरीर के जहान में हूँ
राहत-ए-जाँ से तो ये दिल का वबाल अच्छा है
हुआ है जो सदा उस को नसीबों का लिखा समझा
किस हवाले से मुझे किस का पता याद आया
तअल्लुक़ अपनी जगह तुझ से बरक़रार भी है
उसी एक फ़र्द के वास्ते मिरे दिल में दर्द है किस लिए