परिंदा जानिब-ए-दाना हमेशा उड़ के आता है
परिंदे की तरफ़ उड़ कर कभी दाना नहीं आता
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बिछड़ के तुझ से न देखा गया किसी का मिलाप
कोई पत्थर कोई गुहर क्यूँ है
तेरे लिए चले थे हम तेरे लिए ठहर गए
रख़्त-ए-सफ़र यूँही तो न बेकार ले चलो
शोर सा एक हर इक सम्त बपा लगता है
लोगों के दर्द अपनी पशेमानियाँ मिलीं
ऐसा भी नहीं उस से मिला दे कोई आ कर
मैं दरिया हूँ मगर बहता हूँ मैं कोहसार की जानिब
तअल्लुक़ अपनी जगह तुझ से बरक़रार भी है
किसी झूटी वफ़ा से दिल को बहलाना नहीं आता
आँखों में आँसुओं को उभरने नहीं दिया