अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइए
ता-ज़िंदगी ये दिल न कोई आरज़ू करे
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मिसाल-ए-दस्त-ए-ज़ुलेख़ा तपाक चाहता है
जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो
सारा शहर बिलकता है
रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़'
जो ग़ज़ल आज तिरे हिज्र में लिक्खी है वो कल
पेच रखते हो बहुत साहिबो दस्तार के बीच
उस का अपना ही करिश्मा है फ़ुसूँ है यूँ है
नज़र बुझी तो करिश्मे भी रोज़-ओ-शब के गए
हर आश्ना में कहाँ ख़ू-ए-मेहरमाना वो
कितने नादाँ हैं तिरे भूलने वाले कि तुझे