भरी बहार में इक शाख़ पर खिला है गुलाब
कि जैसे तू ने हथेली पे गाल रक्खा है
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याद आई है तो फिर टूट के याद आई है
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
जब भी दिल खोल के रोए होंगे
अभी हम ख़ूबसूरत हैं
मुंतज़िर किस का हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं
हुआ है तुझ से बिछड़ने के बाद ये मालूम
ज़िंदगी फैली हुई थी शाम-ए-हिज्राँ की तरह
साक़िया एक नज़र जाम से पहले पहले
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला
इस अहद-ए-ज़ुल्म में मैं भी शरीक हूँ जैसे
बन-बास की एक शाम
मंज़िलें एक सी आवारगीयाँ एक सी हैं