ब-ज़ाहिर एक ही शब है फ़िराक़-ए-यार मगर
कोई गुज़ारने बैठे तो उम्र सारी लगे
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मुहासरा
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया
मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब
हमेशा के लिए मुझ से बिछड़ जा
ख़्वाबों के ब्योपारी
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वहशतें बढ़ती गईं हिज्र के आज़ार के साथ
मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं
ज़िंदगी तेरी अता थी सो तिरे नाम की है
नौहागरों में दीदा-ए-तर भी उसी का था
सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं