देखो ये किसी और की आँखें हैं कि मेरी
देखूँ ये किसी और का चेहरा है कि तुम हो
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वो सामने हैं मगर तिश्नगी नहीं जाती
मुझ से पहले
ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
ये किन नज़रों से तू ने आज देखा
मंज़िलें एक सी आवारगीयाँ एक सी हैं
रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र
क़ुर्बतें लाख ख़ूब-सूरत हों
लो फिर तिरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र
सब लोग लिए संग-ए-मलामत निकल आए
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त
आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर