इक तो हम को अदब आदाब ने प्यासा रक्खा
उस पे महफ़िल में सुराही ने भी गर्दिश नहीं की
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सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़
अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
ज़ेर-ए-लब
कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ
अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था
ऐ मेरे वतन के ख़ुश-नवाओ
देखा मुझे तो तर्क-ए-तअल्लुक़ के बावजूद
गिला फ़ुज़ूल था अहद-ए-वफ़ा के होते हुए
क्यूँ न हम अहद-ए-रिफ़ाक़त को भुलाने लग जाएँ