'फ़राज़' तू ने उसे मुश्किलों में डाल दिया
ज़माना साहब-ए-ज़र और सिर्फ़ शाएर तू
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ये अब जो आग बना शहर शहर फैला है
क्यूँ न हम अहद-ए-रिफ़ाक़त को भुलाने लग जाएँ
न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए
किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
जब तिरी याद के जुगनू चमके
हम को उस शहर में तामीर का सौदा है जहाँ
चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का
अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा
नहीं कि नामा-बरों को तलाश करते हैं
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त
कल हम ने बज़्म-ए-यार में क्या क्या शराब पी