'फ़राज़' तेरे जुनूँ का ख़याल है वर्ना
ये क्या ज़रूर वो सूरत सभी को प्यारी लगे
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मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला
जी में जो आती है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो
मैं भी पलकों पे सजा लूँगा लहू की बूँदें
जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर
दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँ
सुकूत-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ है क़रीब आ जाओ
ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे
अब तिरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए
बहुत दिनों से नहीं है कुछ उस की ख़ैर ख़बर
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना