'फ़राज़' तर्क-ए-तअल्लुक़ तो ख़ैर क्या होगा
यही बहुत है कि कम कम मिला करो उस से
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रात भर हँसते हुए तारों ने
अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी
सभी कहें मिरे ग़म-ख़्वार के अलावा भी
अब के तजदीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ
शो'ला था जल-बुझा हूँ हवाएँ मुझे न दो
इश्क़ नश्शा है न जादू जो उतर भी जाए
कितने नादाँ हैं तिरे भूलने वाले कि तुझे
जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर
मिज़ाज हम से ज़ियादा जुदा न था उस का
जब भी दिल खोल के रोए होंगे
ये किन नज़रों से तू ने आज देखा
यूँही मौसम की अदा देख के याद आया है