यूँही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसाँ जानाँ
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ज़िंदगी फैली हुई थी शाम-ए-हिज्राँ की तरह
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था
मत क़त्ल करो आवाज़ों को
क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब
मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला
इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब
ब-ज़ाहिर एक ही शब है फ़िराक़-ए-यार मगर
दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँ
अब तिरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं