ये किन नज़रों से तू ने आज देखा
कि तेरा देखना देखा न जाए
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ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
क्यूँ न हम अहद-ए-रिफ़ाक़त को भुलाने लग जाएँ
अब शौक़ से कि जाँ से गुज़र जाना चाहिए
बैठे थे लोग पहलू-ब-पहलू पिए हुए
आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
गुमाँ यही है कि दिल ख़ुद उधर को जाता है
इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'
जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो
मत क़त्ल करो आवाज़ों को
मैं ने देखा है बहारों में चमन को जलते
किसी बेवफ़ा की ख़ातिर ये जुनूँ 'फ़राज़' कब तक