आज इक और बरस बीत गया उस के बग़ैर
जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे
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मुन्सिफ़ हो अगर तुम तो कब इंसाफ़ करोगे
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
बैठे थे लोग पहलू-ब-पहलू पिए हुए
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
लो फिर तिरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
कभी 'फ़राज़' से आ कर मिलो जो वक़्त मिले
चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो 'फ़राज़'
तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िंदगी
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
मर गए प्यास के मारे तो उठा अब्र-ए-करम