मर गए प्यास के मारे तो उठा अब्र-ए-करम
बुझ गई बज़्म तो अब शम्अ जलाता क्या है
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ऐ मेरे सारे लोगो
जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र
किसे ख़बर वो मोहब्बत थी या रक़ाबत थी
जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
हमदर्द
तेरी बातें ही सुनाने आए
चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो 'फ़राज़'
गिला फ़ुज़ूल था अहद-ए-वफ़ा के होते हुए