मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर
अपने बंदों से तो पिंदार ख़ुदाई ले ले
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नौहागरों में दीदा-ए-तर भी उसी का था
पहले पहले हवस इक-आध दुकाँ खोलती है
जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर
सारा शहर बिलकता है
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
तुझे है मश्क़-ए-सितम का मलाल वैसे ही
न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
न सह सका जब मसाफ़तों के अज़ाब सारे
रात के पिछले पहर रोने के आदी रोए
यूँही मौसम की अदा देख के याद आया है
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ