तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िंदगी
ख़ुद को गँवा के कौन तिरी जुस्तुजू करे
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किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे
जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो
जब यार ने रख़्त-ए-सफ़र बाँधा कब ज़ब्त का पारा उस दिन था
क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उस से
दो घड़ी उस से रहो दूर तो यूँ लगता है
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
इंतिसाब
वापसी
मैं ख़ुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले
ऐ मेरे सारे लोगो
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं