मैं ख़ुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले
उदास छोड़ गए आईना दिखा के मुझे
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चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
न दिल से आह न लब से सदा निकलती है
ये बे-दिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें
इक ये भी तो अंदाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ है
तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िंदगी
उजाड़ घर में ये ख़ुशबू कहाँ से आई है
तेरे क़ामत से भी लिपटी है अमर-बेल कोई
ज़िंदगी तेरी अता थी सो तिरे नाम की है
इस अहद-ए-ज़ुल्म में मैं भी शरीक हूँ जैसे
ग़ुरूर-ए-जाँ को मिरे यार बेच देते हैं