मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी
तिरे लिए मिरे दिल से दुआ निकलती है
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जो ग़ज़ल आज तिरे हिज्र में लिक्खी है वो कल
किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से
जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है
तख़्लीक़
अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर
जब यार ने रख़्त-ए-सफ़र बाँधा कब ज़ब्त का पारा उस दिन था
कशीदा सर से तवक़्क़ो अबस झुकाव की थी
मुझ से पहले
'फ़राज़' इश्क़ की दुनिया तो ख़ूब-सूरत थी
सिलवटें हैं मिरे चेहरे पे तो हैरत क्यूँ है
मुद्दतें हो गईं 'फ़राज़' मगर
तेरी बातें ही सुनाने आए