मुद्दतें हो गईं 'फ़राज़' मगर
वो जो दीवानगी कि थी है अभी
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तअ'ना-ए-नश्शा न दो सब को कि कुछ सोख़्ता-जाँ
मैं और तू
तेरी बातें ही सुनाने आए
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
हम को उस शहर में तामीर का सौदा है जहाँ
बहुत दिनों से नहीं है कुछ उस की ख़ैर ख़बर
ज़िंदगी पर इस से बढ़ कर तंज़ क्या होगा 'फ़राज़'
क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे
इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ
'फ़राज़' तू ने उसे मुश्किलों में डाल दिया
दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें
उस का क्या है तुम न सही तो चाहने वाले और बहुत