मुझ से पहले

मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा उस ने

शायद अब भी तिरा ग़म दिल से लगा रक्खा हो

एक बे-नाम सी उम्मीद पे अब भी शायद

अपने ख़्वाबों के जज़ीरों को सजा रक्खा हो

मैं ने माना कि वो बेगाना-ए-पैमान-ए-वफ़ा

खो चुका है जो किसी और की रानाई में

शायद अब लौट के आए न तिरी महफ़िल में

और कोई दुख न रुलाये तुझे तन्हाई में

मैं ने माना कि शब ओ रोज़ के हंगामों में

वक़्त हर ग़म को भुला देता है रफ़्ता रफ़्ता

चाहे उम्मीद की शमएँ हों कि यादों के चराग़

मुस्तक़िल बोद बुझा देता है रफ़्ता रफ़्ता

फिर भी माज़ी का ख़याल आता है गाहे-गाहे

मुद्दतें दर्द की लौ कम तो नहीं कर सकतीं

ज़ख़्म भर जाएँ मगर दाग़ तो रह जाता है

दूरियों से कभी यादें तो नहीं मर सकतीं

ये भी मुमकिन है कि इक दिन वो पशीमाँ हो कर

तेरे पास आए ज़माने से किनारा कर ले

तू कि मासूम भी है ज़ूद-फ़रामोश भी है

उस की पैमाँ-शिकनी को भी गवारा कर ले

और मैं जिस ने तुझे अपना मसीहा समझा

एक ज़ख़्म और भी पहले की तरह सह जाऊँ

जिस पे पहले भी कई अहद-ए-वफ़ा टूटे हैं

इसी दो-राहे पे चुप-चाप खड़ा रह जाऊँ

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