साक़ी ये ख़मोशी भी तो कुछ ग़ौर-तलब है
साक़ी तिरे मय-ख़्वार बड़ी देर से चुप हैं
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न सह सका जब मसाफ़तों के अज़ाब सारे
'फ़राज़' तू ने उसे मुश्किलों में डाल दिया
नामा-ए-जानाँ
जो भी दरून-ए-दिल है वो बाहर न आएगा
शो'ला था जल-बुझा हूँ हवाएँ मुझे न दो
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया
साए हैं अगर हम तो हो क्यूँ हम से गुरेज़ाँ
वहशतें बढ़ती गईं हिज्र के आज़ार के साथ
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं