सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की
वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले पहले
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चाक-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है
चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
हर आश्ना में कहाँ ख़ू-ए-मेहरमाना वो
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा
ये किन नज़रों से तू ने आज देखा
कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं
कशीदा सर से तवक़्क़ो अबस झुकाव की थी
क़ुर्बतें लाख ख़ूब-सूरत हों
दीवार-ए-गिर्या